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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣡ म꣢र्मृजा꣣न꣢ आ꣣यु꣢भि꣣रि꣢भो꣣ रा꣡जे꣢व सुव्र꣣तः꣢ । श्ये꣣नो꣡ न वꣳसु꣢꣯ षीदति ॥१७६३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स मर्मृजान आयुभिरिभो राजेव सुव्रतः । श्येनो न वꣳसु षीदति ॥१७६३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । म꣣र्मृजानः꣢ । आ꣣यु꣡भिः꣢ । इ꣡भः꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । सुव्रतः꣢ । सु꣣ । व्रतः꣢ । श्ये꣣नः꣢ । न । व꣡ꣳसु꣢꣯ । सी꣣दति ॥१७६३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1763 | (कौथोम) 8 » 3 » 18 » 3 | (रानायाणीय) 19 » 5 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब यह कहते हैं कि परमेश्वर किनके अन्दर स्थित होता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

मनुष्यों को (आयुभिः) आयु के वर्षों से (मर्मृजानः) अलंकृत करता हुआ और (राजा इव) राजा के समान (इभः) निर्भय तथा (सुव्रतः) शुभ कर्मोंवाला (सः) वह पवमान सोम अर्थात् जगत् का उत्पत्तिकर्ता, शुभ गुणकर्मों को प्रेरित करनेवाला, शान्त परमेश्वर (वंसु) जिन्हें उसकी लौ लगी हुई है, उनके अन्दर (सीदति) बैठता है, (श्येनः न) जैसे बाज पक्षी (वंसु) वनों में (सीदति) बैठता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है। पहली पूर्णोपमा है और दूसरी शिलष्ट पूर्णोपमा, दोनों की संसृष्टि है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जिन्हें परमात्मा की चाह होती है, उनके प्रेम से परवश हुआ वह उनके हृदय में स्थित होकर निरन्तर शुभ प्रेरणा करता रहता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरः केषु सीदतीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

मनुष्यान् (आयुर्भिः२) आयुभिः, आयुर्वर्षैरित्यर्थः (मर्मृजानः) अलङ्कुर्वाणः। [मृजू शौचालङ्कारयोः चुरादिः। लिटः कानच्।] किञ्च (राजा इव) सम्राडिव (इभः) इतभयः (सुव्रतः) सुकर्मा च (सः) पवमानः सोमः पावकः जगदुत्पादकः शुभगुणकर्मप्रेरकः शान्तः परमेश्वरः (वंसु) इच्छुकेषु जनेषु (सीदति) उपविशति। कथमिव ? (श्येनः न) श्येनपक्षी यथा (वंसु) वनेषु (सीदति) उपविशति। [इभेन गतभयेन इति निरुक्तम्। ६।१२। षीदति, संहितायां षत्वं छान्दसम्। वंसु इच्छुकेषु, वनोतिः कान्तिकर्मा। निघं० २।६, यद्वा वंसु वनेषु, वन शब्दस्यान्तलोपश्छान्दसः] ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः। प्रथमा पूर्णोपमा, द्वितीया श्लिष्टा पूर्णोपमा, उभयोः संसृष्टिः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

ये परमात्मानं कामयन्ते तत्प्रीतिपरवशः स तेषां हृदि स्थितः सततं सत्प्रेरणां कुरुते ॥३॥